Monday, March 8, 2010

अन्‍तर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस पर एक फोटो


अर्ध अजित जित, अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति पिपासा,

आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,

अर्धांगिनी नारी ! तुम जीवन की आधी परिभाषा ! ’’

आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर शुभकामनाएं। फोटोः कमलेश शर्मा ।

Tuesday, November 3, 2009

आंखों की शर्म


" बूढी हुई शाम के संग, बेसुध सवेरा हो गया,
पवन ने जो छोड़ी गति, पागल जमाना हो गया।

आंखों की शर्म, ओहदों पर भारी लगी,
इक ईशारे पर सूरज, जब चंदा संग हो गया। "

(यह चार पंक्तियां किसी प्रसंग विशेष पर किसी व्‍यक्ति विशेष के लिए लिखी गई है, आप तो बस भाव समझ कर इन पंक्तियों का आनंद उठाईये)

Thursday, August 27, 2009

तुलसी की पौध

"हम तो फकत
तुलसी पौध की मानिंद है,
जो
बड़ा होकर भी
छोटा ही रहा,
पूज्‍य रहकर
घर का कोना ही पा लिया,
और
घूमते- फिरते
किसी शख्‍स ने,
जब चाहा नोंचा-खरौंचा,
पत्‍ता तोड़ा
और
खा लिया । ''
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Wednesday, August 26, 2009

असभ्‍य ही बना रहना चाहता हूँ

कहना चाहता हूँ
मैं
बहुत कुछ,
बहुत समय से
तथाकथित सभ्‍य समाज से,
चुप हूँ
सभ्‍यता की भाषा
मैं नहीं जानता
क्‍योंकि
शब्‍दाडंबर मुझे पसन्‍द नहीं हैं,
न तो शहरी हूँ,
न ऊँचे ओहदे का मालिक,
उम्र भी नहीं है
डरता हूँ
कहीं, इस अभाव में
महज बचपना परिभाषित कर
मखौल न उड़ा दिया जाय,
जानता हूँ
अधिकार विहीन होता है सभ्‍य समाज,
हावी होते है छिछले कर्त्‍तव्‍य
अधिकारों पर,
बंधी होती है वाणी
सभ्‍यता के खोल में,
मैं
अपने अधिकारों का
खुलकर उपयोग करना चाहता हूँ,
इसीलिए
चुप रहकर ही
असभ्‍य बना रहना चाहता हूँ ।
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Tuesday, August 25, 2009

नदी, गति और बाधा

नदी की
गति बाधा
तोडना चाहता हूं
मुझे नदी से लगाव है,
‘मैं’
माध्यम हूं
प्रवाह की बाधा तोडने का,
अनुरोध किया था
कई छोटे-बडे नालों ने,
पूर्ण प्रवाह की बाधाओं को समझकर
डर था उन्हें भी
प्रवाह गर धीमा हुआ,
बाधाओं से उलझा
तो
सूख जाएगी नदी,
फिर कैसी नदी ?
कैसी गति ?
बाधाएं कभी सहयोगी नहीं होती
गति को तोडती हैं,
गति का टूटना,
अस्तित्व का टूटना है
नदी में मिलने वाले सहयोगी नाले,
चाहते हैं
नदी ऊॅंचाईयां चढे,
प्रवाह और तेज हो,
नदी दुगुनी गति से
समन्दर की जानिब बहे
और
परम वैभव रूपी समन्दर बन जाए,
नदी का समन्दर में मिलना
नालों की भी महानता है
समन्दर की
महानता, धीरता
नदी से कई गुनी अधिक होती है
यह नदी भी जानती है,
नाले भी
क्योंकि नाले भी चाहते है
नदी में मिल
समन्दर बनना,
बाधाएं ठोस है,
उनमें तरलता नहीं,
इसीलिए वे स्थिर है,
नदी के बीच की बाधा बनकर,
उन्हें नहीं पता
क्या होता है प्रवाह का आनन्द,
तरलता और सहृदयता,
यह बातें बखूबी समझती है
नदी
जो स्वतः ही समेट लेती है
नालों को
अपने अस्तित्व में
और अपने संग-संग नालों को
समन्दर की महानता का वरण कराती है
मैं भी
नाला, नदी और समन्दर
बनना चाहता हूं ,
बहना चाहता हूं,
प्रवाह का आनन्द लेना चाहता ह
और इसीलिए
मुझे बाधाओं से शिकायत है ।
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